बच्चों को पढ़ाने के लिए गांव से शहर कूच करने को मजबूर श्रमिक

देश के आमजन के विकास से ही देश का विकास होता है। जब तक देश की सरकार अपने प्रत्येक नागरिक को जीवनयापन के लिए मूलभूत सुविधाएं ना उपलब्ध करवा पाए तब तक देश का विकास पूर्ण नहीं माना जा सकता। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो खोखले विकास की पटरी पर मानवता की गाड़ी नहीं दौड़ सकती है। इसी तरह भारत में विकास के नाम पर संसद से नेता बड़ी बड़ी हुंकारें तो भरते हैं लेकिन उस विकास से दूर रह जाता है तो वो है भारत का गरीब श्रमिक। बिना श्रमिकों के विकास के भारत के विकास की संकल्पना भी मिथ्या ही है। विकास की इस दौड़ में हम भागे तो जा रहे हैं लेकिन उसी दौड़ में कुछ लोग पीछे रह जाते हैं उन्हीं पीछे छूटे हुए लोग में से एक परिवार है जो बुंदेलखंड क्षेत्र के महोबा जिले के कौहारी गांव से दिल्ली आया और यहीं पर रहकर अपना गुजर बसर कर रहा है। इस परिवार के मुखिया सम्पतचंद हैं जो अपने बड़े बेटे तथा बहू के साथ मजदूरी करने दिल्ली आए हैं। सम्पतचंद के दो बच्चे गांव में ही सम्पत की पत्नी के साथ रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। सम्पतचंद ने हमें बताया कि वो अपने बड़े बेटे और बहू के साथ चार साल पहा दिल्ली आए थे और तभी से मात्र नौ हजार रुपये मासिक वेतन पर एक ठेकेदार के यहां नौकरी कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि गांव से दिल्ली आने का मुख्य कारण बेरोजगारी था। गांव में उन्हें नियमित रूप से रोजगार नहीं मिलता इसलिए उन्हें दिल्ली आना पड़ा। सम्पतचंद ने बताया कि उनके जो दो बच्चे गांव में हैं वो कुशाग्र बुद्धि के मेधावी छात्र हैं इसलिए वो उन्हें आगे पढ़ा लिखा कर काबिल बनाना चाहते हैं जिसके लिए वो उन्हें गांव के प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रहे हैं और आठ सौ रुपये मासिक स्कूल की फीस भी भर रहे हैं। सम्पतचंद ने बताया कि उनके गांव में सरकारी स्कूल में बिलकुल पढ़ाई नहीं होती इसलिए वो अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रहे हैं। सम्पतचंद और उनके परिवार को ठेकेदार द्वारा ईएसआई के अंतर्गत मिलने वाली स्वास्थय सुविधाएं नहीं मिलती जिससे उन्हें भारी असुविधा होती है। ना ही उनके रहने के लिए ही कोई उचित व्यवस्था है। वे तुगलकाबाद स्थित झुग्गी-झोपडी कालोनी में रहते हैं जहां ना तो स्वचछ पेय जल की ही सुविधा है और ना ही शौचालय की। जिस देश का अंतरिक्ष अभियान चंद्रमा तक पहुंच चुका हो अगर उस देश के गरीब मजदूर खुले में शौच के लिए जाएं तो कहीं ना कहीं ये विकास पर प्रश्न चिन्ह अंकित करता है।

बहरहाल सम्पतचंद और उसका परिवार देश की राजधानी में सरकार द्वारा लगाए गए आभासी विकास के केनवास के नीचे खुशी खुशी रह रहे हैं और सरकार से आशा कर रहे हैं असल में उन्हें वो विकास की सौगात मिल पाए जिसका जिक्र सिर्फ सरकारी फाइलों में ही है।


-मुकेश 

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