घर का विकास

यूं तो भारत की पहुंच अंतरिक्ष तक हो चुकी है। राजनीतिक गलियारों में बैठे नेता अभिनेता नित नए ऐसे अनुसंधानों और प्रयोगों के लिए फंड आवंटित करते रहते हैं जिससे कि भारतभूमि से परे अंतरिक्ष में भी इंसानों की बस्ती बसाना सुनिश्चित किया जा सके लेकिन इसी बीच शायद ठंडे वातानूकूलित कमरों में बैठे वे सफेदपोश कहीं ना कहीं भूल जाते हैं कि देश के भीतर ऐसे भी लोग निवास करते हैं जिनके सिरों पर छत तक नहीं है। आज सुबह ऐसे ही एक बाल मजदूर रामू से मुखातिब हुआ तो उसकी कहानी जानकर मन में ये बात और मजबूती से बस गई की वाकई अभी बापू के मन का भारत बनने में अभी देश को एक मीलों लंबी यात्रा तय करनी है और अगर विकास की इस राह में भ्रष्टाचार, परिवारवाद, साम्प्रदायिकता, आदि तमाम तरह के अनैतिक रोडे ना हों तो निश्चित ही ये यात्रा जल्दी से जल्दी पूरी की जा सकती है।

बिहार के शिवहर जिले के छोटे से गांव चमनपुर का रहने वाला रामू अपने एक रिश्तेदार के साथ दिल्ली की केशोपुर सब्जीमंडी में काम की तलाश में इसलिए आया कि गांव के अपने घास-फूस के मकान को वह अपने पक्के इरादों की तरह पक्का करवा सके। रामू की उम्र महज़ पंद्रह साल और शरीर इस बात का परिचायक है कि उसके गांव में स्वास्थय सेवाओं की हालत में अभी रामू के शरीर की ही तरह ही कितना कुपोषण बचा हुआ है। रामू के गांव में ना तो पीने के पानी की ठीक व्यवस्था है और ना ही गांव की जनता के भरण पोषण के लिए सरकारी राशन की दुकानों पर राशन ही मौजूद है। रामू ने अपने गांव का ही एक वाकया हमें बताया। उसने कहा, गांव में एक बार प्रसव पीड़ा से जूझ रही एक महिला को जब नजदीकी स्वास्थय केंद्र जो कि गांव से बहुत दूर था, तक ले जाया जा रहा था तब अच्छी सड़क ना होने के कारण रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई। इससे बखूबी अंदाजा लगाया जा सकता है कि अभी जिस भारत में विकास के नाम की डुगडुगी बजाई जा रही वो विकास असल मायनों में कहां और किस पायदान पर खडा है। जहां महज अच्छी सड़क ना होने की वजह से एक ही वक्त पर दो जिंदगियां खत्म हो जाती हों वहां विकास अभी कितना पीछे है। फिलहाल रामू सब्जीमंडी में बोझा ढोने का काम करता है। उसका कुपोषित शरीर भारत की संसद में कागजों पर लिखे गए विकास सम्बंधित आंकडों का बोझ किस तरह उठा रहा है, ये वाकई नेताओं के लिए सोचने का मुद्दा है।

रामू ने बताया कि उसके परिवार में उसकी मां, पिता तथा एक उससे बड़ी और एक उससे छोटी बहन है। बड़ी बहन की शादी उसके पिता ने कर्ज लेकर की जिसको चुकाने के लिए ही उसे दिल्ली में आकर अपनी खेलने-खिलखिलाने की उम्र में ये काम करना पड़ रहा है। गरीबी के इस बोझ तले रामू और उसकी बहन इस तरह दब गए कि ना तो उनकी पढ़ाई-लिखाई ही पूरी हो पाई और ना ही वो अपना बचपन ही जी पाए। रामू ने बताया कि ये कहानी अकेले उसी की ही नहीं है, उसके गांव में उसके जैसे और भी कई बच्चे हैं जो खराब आर्थिक स्थिति के कारण गांव से शहर को मजदूरी करने के लिए कूच किए हुए हैं। 

ये तो एक छोटा से गांव का हाल है लेकिन असल में ना जाने इस श्रैणी के अंतर्गत कितने ही गांव-कूचे शामिल हैं।

ऐसा देश जहां बचपन बोझ उठाए और अपने पढ़ने लिखने की उम्र में मजदूरी करे वहां विकास की परिकल्पना कल्पना करना कहां तक उचित है ये विचारणीय है। 

ये कहानी थी रामू की। इस देश में आज ना जाने कितने ही रामू सरीखे बच्चे मौजूद हैं। विकास का मतलब महज सिर्फ चौडी सड़के बनवाना, बड़ी बड़ी योजनाओं की घोषणा करना आदि ही नहीं है असल मायनों में विकास वही है जहां सभी को उनकी योग्यताओं के अनुसार रोजगार मिले, गरीब कल्याण की योजनाएं सिर्फ कागजों तक ही सीमित ना रहें। आंकड़ों के अनुसार, हर साल भारत में लाखों युवा ग्रेजुएट होते हैं लेकिन उनमें से कुछ को ही रोजगार मिल पाता है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था का देश के विकास की अवधारणा में क्या लाभ जो युवाओं को रोजगार ही ना दिलवा सके। इसलिए देश के आमजन का विकास ही देश का विकास है। 

-मुकेश

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